RKTV NEWS/बिनोद सिंह गहवार 14अप्रैल।बचपन में दादा- दादी को यह कहते सुनता था कि ,”कुछ नहीं मिले तो सत्तू खाओ और कोई न मिले तो किसी बुड़बक से बातियाओ। इससे यह स्पष्ट होता है कि उन दिनों सत्तू सहज ,सस्ता एवं सर्वसुलभ खाद्य पदार्थ रहा होगा।उस समय इसका कोई मोल नहीं रहा होगा।उन दिनों लोग एक दूसरे पर भारी होने के लिए बात -बात पर कहते, ” आज तक जो सत्तू खाया है उसको भला खोआ- मलाई अच्छा लगेगा?” या फिर दूसरे को नीचा दिखाने के लिए कहते, “गमछी में बांघ कर सतुआ खाने वाला पुआ-पकवान का हाल क्या जाने।धनी आदमी किसी गरीब के गरीबी का मजाक उड़ाते कहता,” बाप- दादा को सतुआ छोड़ भर पेट खाना नसीब नही हुआ ए चले हैं बड़ी-बड़ी बात करने। इस तरह और क्या- क्या नहीं…..
आज सतुआन है और मैं पूरे विश्वास और साहस से कह स़कता हूँ कि आज सत्तू सर्वसुलभ नही है।जहां तक बुड़बक का सवाल है तो आज कोई बुड़बक है हीं नहीं।
सच में कहा गया है घुर के भी दिन फिरते हैं।आज मैं सत्तू की ओर पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता हीं नहीं कि सत्तू कभी सस्ती एवं सर्वसुलभ खाद्य समाग्री रही होगी।ये बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि आज सत्तू उतना हीं दुर्लभ पदार्थ हो गया है जितना कि गाय का शुद्ध घी। जब घरों में घी आग पर कड़काया जाता था तो पूरा मोहल्ला उसके सुंगध से गमकने लगता था।वैसे हीं जब घुनसार से चना भुँजवाकर कोई लौटता था तो उसके सौंधी सुगंध को भांप कर राह चलते लोग कहते, “क्या जी चना भुंजवाकर आ रहे हो क्या ?” फिर जब हमारी मां या घर के अन्य महिला मंडली उसे जाँता में पिसती तो उसकी सौंधी सुगंध हवा में तैरने लगती।
पर आज ढ़ूढते रह जाइए, ब्रांड पर ब्रांड बदलते रहिए, पैसा दस का बीस फेंकते रहिये पर क्या मजाल कि जाँता और घुनसार ब्रांड का सत्तू आपको मिल जाए।
ये तो रही गुणवत्ता की बात।अब हम कीमत पर आते हैं।गर्मी का दिन है किसी ठेला पर जाइए और प्यास बुझाने का साहस कीजिए।एक चुटकी सत्तू का दाम बीस या पच्चीस रूपया।अगर मन किया कि किसी ढ़ाबे में चटनी अंचार के साथ सत्तू खाया जाय तो सौ ग्राम सत्तू की कीमत सौ रुपया।अगर किसी दुकान पर लिट्टी-चोखा खाना हो तो एक लिट्टी का दाम बीस रुपया और घी के नाम पर घी के साथ चालीस रुपया।
जहांतक चटनी का सवाल है उन दिनों केवल बगीचे में जाना था दस-बीस टिकोढ़े तो मिल ही जाते थे। पर आज मैं जब चटनी के लिए आम खरीदने गया तो दाम सुनकर दंग रह गया।चटनी वाले आम की कीमत सौ रुपए किलो।
शहरीकरण तो पहले हीं हमें अपनी संस्कृति और त्योहारों से दूर कर दिया और बढ़ती कीमत जले पर नमक छिड़कने का काम कर रहा है। इसलिए मैं यह कह कर आप सब से विदा ले रहा हूं।