मिजाज मौसम का!!
जलता हुआ नवम्बर जून को मात दे गया।
जुलाई अगस्त का सीना जो फट गया।
जुनून में आदमी अब देखता है कहाँ।
आकाश पाताल सब बेजार होता गया।
ना जंगल शेष बचे ना पेड़ प्रचुर जहाँ में।
परवाज़ो की धरती गगन छिनता गया।
सुखी नदियाँ रेत उड़ रहे दोआब में।
आँसू पहाड़ को, उफान सागर को देता गया।
निगलता गया इंसान सब कुछ,
शराफत की होड़ में।
विकास का कैसा अंजाम देता गया।
मिटाता गया आदमी जीवन के सलीके।
आदमी-आदमी से जो उम्दा बनता गया।
दोष ले कौन? दोष है किसका?
कतवारो से गगन पाताल भरता गया।
मुँह चिढ़ता हर जगह आदमी ही मिला।
पर प्रकृति का मिजाज को यूँ ही कोसता गया।
बाँध दी नदियाँ धारा को रोक दी।
पहाड़ो के कुनबे को सिरफिरो ने तोड़ दी।
बो दी बारुद धरती का दामन में।
सूरज को खुल्लमखुला ललकारता गया।
अब रोके कौन महाविनाश के रथ को।
महारथियो ने फिर गांडीव रख दिया।
अभिमन्यु सी प्रकृति खड़ी चक्रव्यूह में।
और बाण अनगिनत वेधता जो गया।
देखना है यें रार अब रुकता है कहाँ!!
धृष्टता इंसान का और यूँ ही बढता गया।
मौन क्रंदन सुने कौन जहाँ में।
मन,बुद्धि,विचार पठार जो होता गया।
आदमी का यें कैसा विकास होता गया।