
खिसिआया हुआ समाज
एक होता है
खीसियाया हुआ *आदमी*
जो पड़ोसी से जीत नहीं पाता
तो अपनी *पत्नी* को पीटकर विजय का मजा चखता है ।
पत्नी की गलती भले ही खाने में नमक तेज होने भर की हो ।
एक होता है
खिसियाया हुआ *बाप*
जो अपने *मालिक* के
बच्चे की *दुत्कार* सुनकर मुस्कुराता है
और इस दुत्कार का दर्द वह
अपनी *औलाद* की पीटकर मिटाता है
भले ही उसकी औलाद की गलती देरी से घर आने भर की हो ।
एक होता है
खिसिआया हुआ *समाज*
जो एक अहंकारी और निरंकुश व्यवहार को सहता है
और इसका गुस्सा
उस *नेतृत्व* पर निकालता है
जो नेतृत्व संवेदनशील
और आहिंसक हो ।
बताओ तुम
कब समान दिन लाओगे ?
जब कोई भी
बेहिचक कहीं जा सके।
*सामान्य दिनों* का हरण करने वाला हमारी पकड़ से बाहर है और *असामान्य दिनों* में घर से निकल जाने वालों का गिरेबान हमारे हाथों में है ।
यही तो हम लोग हैं ,
सवाल है किससे डरना है
और कटघरे में कौन खड़ा है? आइए हम लोग उनकी आलोचना उनका मजाक उड़ाए
जिसको करने से हमारे मुखर होने का *भरम* बना रहे।
क्योंकि हम
खिसिआया हुआ समाज हैं।